योग के विविध आयामों में हठयोग का स्थान महत्वपूर्ण है। ऐसा कहा जाता है की हठयोग और तंत्र विद्या का सम्बन्ध अधिक निकट का है, अर्थात् तंत्र विद्या से हठयोग की उत्पति मानी जाती है। ऐसा इसलिए कहा गया है की क्योंकि भगवान शिव ही इन दोनों विद्याओं के प्रणेता हैं। हठयोग का अर्थ आज व्यावहारिक रूप में जबरदस्ती किया जाने वाला अर्थात् शरीर की शक्ति के विपरीत लगाकर किया जाने वाला योग के अर्थ में जानते हैं किन्तु यह उचित नहीं है। ‘हठ' शब्द का अर्थ शास्त्रों में प्रतीकात्मक रूप से लिया गया है।
हठयोग की परिभाषा देते हुए योग के ग्रंथों में कहा गया है- हकारः कथितः सूर्य ठकारचन्द्र उच्यते। सूर्य चन्द्रमसौयोगाद् हठयोग निगद्यते॥ अर्थात् हठयोग में हठ शब्द 'ह' और 'ठ' दो अक्षरों से मिलकर बना है। इनमें हकार का अर्थ सूर्य स्वर या पिंगला नाड़ी से है और 'ठकार' का अर्थ चन्द्र स्वर या इड़ा नाड़ी से लिया गया है। इन सूर्य और चन्द्र स्वरों के मिलन को ही हठयोग कहा गया है। क्योंकि सूर्य और चन्द्र के मिलन से वायु सुषुम्ना में चलने लगता है जिससे मूलाधार में सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में प्रवेश कर ऊपर की ओर चलने लगती है तथा षट्चक्रों का भेदन करती हुई ब्रह्मरंध्र में पहुंचकर ब्रह्म के साथ एकत्व को प्राप्त होती है।