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मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ? इस प्रश्न का समाधान मनीषियों ने कई तरह से दिया है। कुछ लोगों का मत है कि सुखसुविधाएं और भोग-विलास ही जीवन के लक्ष्य हैं। परन्तु प्राचीन काल से | हमारे पूर्वजोंने जीवन का लक्ष्य धर्म, | अर्थ, काम एवं मोक्ष माना है। इसके अनुसार मानव जीवन को ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एवं सन्यासा श्रम नामक चार भागों में विभाजित कर कहा गया कि मनुष्य को इस क्रम में जीवन यापन करना चाहिए। परन्तु आजकल इसवे? अनुकूल वातावरण नहीं है। इस विषय पर विभिन्न धर्मावलंबियों ने भी ध्यान दिया | उन सभी के मतों में आध्यात्मिकता को महत्व मिला | योगशास्त्र का भी यही लक्ष्य है| योग का अर्थ आत्मा और परमात्मा का योग व संयोग निर्धारित किया गया। यह योग ध्यान और समाधि से ही संभव बताया गया। उस स्थिति की प्राप्ति के लिए वैराग्य एवं चित्तवृत्तियों के निरोध पर बल दिया गया।


 इसलिए महर्षि पतंजलिने सूचित किया योगश्चित वृत्ति निरोध:” हमारे ऋषि, मुनि एवं योगी सभीने योग संबंधी सिद्धांतों के साथ आचरण को भी प्रधानता दी | योगाभ्यासियों की समझ में यह बात आसानी से आ जाती है| 


योगशास्त्र का लक्ष्य है कि पारिवारिक व सांसारिक झंझटों के साथसाथ परमात्म तत्व को भी समझने का प्रयास किया जाये और इसके द्वारा आनंद प्राप्त कर जीवन को सार्थक बनाया जाये।


 इसका मुख्य साधन मानव का शरीर है। इसके दो रूप हैं। 1) बाहय रूप 2) अंतर स्वरूप।


शरीर, मन, प्राण, बुद्धि तथा आत्मा आदि अवयवों और उस समय प्रचलित योग विधानों को दृष्टि में रख कर उन पर शोध करने के बाद महर्षि पंतजलिने योग के अष्टांगों का निर्धारण किया।।


साधनपादः

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ॥ २.२९॥


  1) यम 2) नियम 3) आसन 4) प्राणायाम 5) प्रत्याहार 6) धारणा 7) ध्यान 8) समाधि। ये आठ योग के अष्टांग हैं।



इनमें यम, नियम, आसन और प्राणायाम ये चार अंतर और बाहय स्वरूप से संबंधित हैं।

 फिर भी इनका प्रभाव मुख्य रुप से बाहय रूप पर अधिक पड़ता है। अत: ये बहिरंग योगांग माने गये हैं।

इसी प्रकार प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि इन चारों का प्रभाव अंतर स्वरूप पर अधिक पड़ता है।

 अत: ये अंतरंग योगांग माने गये हैं। इन अष्ट योगांगों के बारे में जानना जरूरी है।



अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥ 2.30॥


1. यम

यह प्रथम अंग है| प्राचीन काल में ये बहुत थे। परन्तु महर्षि पतंजलिने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह इन पांचों को यम माना | ये पाँच यम सामाजिक बताव से संबंधित हैं। मानव के जीवन को सही मार्ग पर चलाना ही इन पाँच यमों का लक्ष्य है|


1.1) अहिंसा :


अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ 2.35॥


शब्दार्थ :- अहिंसा- प्रतिष्ठायां (  हिंसा के भाव से पूरी तरह से मुक्त होने पर अर्थात अहिंसा के सिद्ध होने पर ) 

तत् – सन्निधौ ( उसके निकट या पास रहने वालों का )

 वैरत्याग: ( आपस में वैरभाव समाप्त हो जाता है । )

हर प्राणी की रक्षा करते हुए, मन, वाणी तथा कर्म के द्वारा शारीरिक एवं मानसिक रूप से किसी को हानि न पहुंचाना, हिंसा के लिए दूसरों को प्रोत्साहित न करना और हिंसा करनेवालों को रोकना अहिंसा है |


1.2) सत्य :


सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।।2.36।।


शब्दार्थ :- सत्य- प्रतिष्ठायां ( सत्य अर्थात सच के सिद्ध हो जाने पर
क्रियाफल-आश्रयत्वम् ( योगी के कहे हुए कथनों या वचनों के फल का प्रभाव अन्यों या दूसरों के ऊपर भी पड़ता है । )


मन, वचन एवं कर्म के द्वारा सत्य बोलना, असत्य आचरण न करना सत्य है।


1.3) अस्तेय :

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।।2.37।।


शब्दार्थ :- अस्तेय- प्रतिष्ठायां ( चोरी के भाव का पूरी तरह से अभाव होने पर अर्थात चोरी के भाव से पूरी तरह से मुक्ति प्राप्त होने पर

सर्वरत्नो- पस्थानम् ( सभी प्रकार के उत्तम से उत्तम रत्न अर्थात पदार्थ प्रकट होते हैं । )


चोरी, घूसखोरी, काला बाजारी तथा मिलावट आदि कुकृत्यों से दूर रहना, दूसरों को इसके लिए प्रोत्साहित न करना और करनेवालों को रोकना अस्तेय है|


1.4) ब्रह्मचर्य :

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः।।2.38।।


शब्दार्थ :- ब्रह्मचर्य- प्रतिष्ठायां ( ब्रह्मचर्य के पूर्ण रूप से सिद्ध होने पर

वीर्यलाभः ( सामर्थ्य अर्थात बल की प्राप्ति होती है । )


पाँच ज्ञानेंद्रियों और पाँच कर्मेद्रियों के साथ-साथ मन को वश में रख कर संयम से जीवन बिताते हुए सत्संतान की प्राप्ति कर मानव जगत् का कल्याण करना ब्रह्मचर्य है।


1.5) अपरिग्रह :

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः 2.39


शब्दार्थ :- अपरिग्रह ( अनावश्यक वस्तुओं व विचारों के त्याग की स्थिति ) 

स्थैर्ये ( स्थिर अथवा सिद्ध होने पर

जन्म ( जीवन से सम्बंधित

कथन्ता ( कथा या कहानी

सम्बोध: ( ज्ञान या जानकारी हो जाती है )

भौतिक सुख साधनों को आवश्यकता से अधिक जमा न करना और दूसरों की संपत्ति को देख लालायित न होना अपरिग्रह है|





शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ २.३२॥

शब्दार्थ :- शौच ( शुद्धि ) सन्तोष ( मेहनत से जो मिले, उसी में सब्र करना ) तप: ( द्वंद्वों को सहना ) स्वाध्याय ( मोक्षकारक ग्रन्थों का अध्ययन ) ईश्वर प्रणिधान ( समस्त कर्मों को भगवान को समर्पित कर देना )


2. नियम


ये आत्म विकास से संबंधित हैं। महर्षि पतंजलि के द्वारा निर्देशित प्रणिधान अर्थात शरणागति |


2.1) शौच :

शौचात्स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।।2.40।।
शब्दार्थ :- शौचत् ( शुद्धि के सिद्ध होने पर ) स्व ( स्वयं यानी अपने ) अङ्ग ( अंगो अर्थात शरीर के हिस्सों से ) जुगुप्सा ( घृणा या विरक्ति ) परै: ( तथा दूसरों के शरीर से भी ) असंसर्ग: ( सम्पर्क या सम्बन्ध बनाने की इच्छा नहीं रहती )

शारीरिक एवं मानसिक रूप से शुद्ध रहना, बाहय शरीर की शुद्धि के लिए स्नान करना, कपड़े, घर और कर्मस्थल को साफ सविचारों, सदाचारों को स्थान दे कर मन को भी पवित्र एवं शुद्ध ररचना |


2.2) संतोष :

संतोषादनुत्तमः सुखलाभः।।2.42।।

शब्दार्थ :-संतोषात् - संतोष (से)

अनुत्तम - परम

सुख - सुख

लाभः - प्राप्त (होता है)।


तृप्त रहना, जो मिले उसी से संतुष्ट रहना ही संतोष है। आज के युग में पूर्ण संतोष पाना यद्यपि संभव नहीं है तथापि उसके लिए प्रयास करना है|


2.3) तप :

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः।।2.43।।


शब्दार्थ :- तपस: ( तप के पालन या प्रभाव से
अशुद्धि- क्षयात् ( अशुद्धि का नाश होने से )
 काय ( काया अर्थात शरीर की )
 इन्द्रिय ( इन्द्रियों अर्थात कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की )
 सिद्धि: ( सिद्धि प्राप्त होती है । )


श्रम एवं सहन शक्ति बढ़ा कर शरीर और मन को तपस्या के द्वारा प्रशांत रखना और हर प्रकार के कष्टों का सहन करना तप है।


2.4) स्वाध्याय :

स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः।।2.44।।


शब्दार्थ :- स्वाध्यायत् ( स्वाध्याय का पालन करने से
इष्टदेवता ( जिसकी हम आराधना या उपासना करते हैं । )


 सम्प्रयोग: ( उसका साक्षात्कार या उससे निकटता हो जाती है । )

सत्संग एवं अध्ययन के द्वारा ज्ञान पाना, अपने बारे में जानना अर्थात् आत्मज्ञान पाने के लिए सत्साहित्य का पठन व चिंतन करना स्वाध्याय है| आत्म साक्षात्कार के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय आवश्यक साधन है।


2.5) ईश्वर प्रणिधान :

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।।2.45।।


शब्दार्थ :- ईश्वर- प्रणिधानात् ( अपने समस्त कर्मों का समर्पण ईश्वर में करने से

समाधि- सिद्धि: ( समाधि की सिद्धि अर्थात प्राप्ति होती है । )


ईश्वर की शरणागति की आदत डालना, अहंकार का त्याग और कार्य के फल को ईश्वर के चरणों में अर्पित कर निष्काम भाव से काम करना ईश्वर प्रणिधान है।
ये यम और नियम जीवन के विधान हैं। पुराने जमाने में सभी लोग इनका पालन करते थे। इसलिए वह स्वर्णयुग माना गया। आज के कलियुग में शक्ति के अनुसार इनका पालन करना आवश्यक है। इससे मानव जगत् का कल्याण होगा |


3. आसन


स्थिरसुखमासनम्।।2.46।।

(स्थिर-सुखम् आसनम्)


शब्दार्थ=:> शरीर की स्थिति विशेष जिसमें शरीर बिना हिले- डुले स्थिर व सुखपूर्वक देर तक बैठा रह सकता है, उस अवस्था को आसन कहते हैं ।


ये योगासन के नाम से प्रख्यात हैं| आम जनता का विश्वास है कि योगशास्त्र माने योगासन ही हैं। परन्तु वास्तव में योगासन योगशास्त्र के प्रमुख अंश मात्र हैं। योगासन शारीरिक शुद्धि, अवयवों की पुष्टि तथा दीर्घायु में सहयोग देनेवाले साधन हैं। योगासनों के द्वारा रोगों को रोका जा सकता है| रोग आ जाये तो उन्हें दूर भी किया जा सकता है।
पतंजलि के अनुसार, `स्थिरं सुखं आसनं’ अर्थात् सुख से एक ही स्थिति में स्थिर रहना आसन है। आम तौर पर मनुष्य अपने अवयवों को एक ही स्थिति में ज्यादा समय नहीं रख सकता | इसीलिए अवयवों को अलगअलग स्थितियों में रख कर उन्हें सुविधा के अनुसार फैला कर या मोड कर रोगों से मुक्त रहने का प्रयास आदमी करता है। आसनों का लक्ष्य अवयवों को शक्ति एवं सामथ्र्य प्रदान करना है।


प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्।।2.47


शब्दार्थ :- प्रयत्न ( सभी शारीरिक गतिविधियों या सभी प्रकार की शारीरिक कोशिशों को
शैथिल्य ( शिथिल कर देना या रोक देना
अनन्त ( जिसका कभी अन्त नहीं होता अर्थात ईश्वर या परमात्मा में  ) 
समापत्तिभ्याम् ( पूरा ध्यान लगाने से आसन में सिद्धि मिलती है । )


बिना जल्दबाजी के अभ्यास कर एकाग्र होकर शक्ति के अनुसार, योगासन करना जरूरी है। योगासनों की संख्या बहुत ज्यादा है।


आसन में सिद्धि प्राप्त होने पर हमें क्या फल प्राप्त होता है । इसकी व्याख्या अगले सूत्र में की गई है ।


ततो द्वन्द्वानभिघात: ।। 48 ।।


शब्दार्थ :- तत: ( तब अर्थात आसन की सिद्धि होने पर ) द्वन्द्व ( सर्दी – गर्मी ) भूख- प्यास, लाभ- हानि आदि ) अनभिघात ( आघात अर्थात कष्ट नहीं पहुँचाते )
आसन के सिद्ध हो जाने पर साधक को सर्दी- गर्मी, भूख- प्यास, लाभ- हानि आदि द्वन्द्व आघात अर्थात कष्ट उत्पन्न नहीं करते हैं ।


4. प्राणायाम


तस्मिन्सतिश्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।2.49।।


तस्मिन् सति-आसन की सिद्धि हो जाने पर
श्वास -प्राणवायु को अन्दर लेने (पूरक) व
प्रश्वासयो: -प्राणवायु को बाहर छोड़ने की (रेचक)
गतिविच्छेद: -सहज गति को अपने सामर्थ्य अनुरूप रोक देना या स्थिर कर देना ही
प्राणायाम: -प्राणायाम कहलाता है ।


प्राणायाम में प्राण और आयाम दो शब्द हैं। प्राण क्या है ? शक्ति या सांस ही प्राण है। आयाम क्या है ? बढ़ाना या विस्तार करना ही आयाम है| अर्थात् प्राणशक्ति को बढ़ाना या नियंत्रित करना प्राणायाम है | प्राणायाम के विधान अनेक हैं।

बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिर्देशकालसंख्यामि परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः।।2.50।।


बाह्यवृत्ति: -प्राणवायु को बाहर निकालकर कर बाहर ही रोकना
आभ्यंतर वृत्ति: -प्राणवायु को भीतर भरकर भीतर ही रोकना
स्तम्भवृत्ति:-प्राणवायु को न भीतर भरना न ही बाहर छोड़ना अर्थात प्राणवायु जहाँ है उसे वहीं पर रोकना
देश -स्थान अर्थात प्राणवायु नासिका से जितनी दूरी तक जाता है वह उसका स्थान है।
काल -समय अर्थात जितने समय तक प्राणवायु बाहर या भीतर रुकता है।
संख्याभि: -एक प्राणायाम को करने में स्वाभाविक रूप से कितने श्वास प्रश्वास हो सकते हैं, उनकी गणना द्वारा
परिदृष्ट: -भली प्रकार देखा व जाना हुआ प्राण
दीर्घ -लम्बा व
सूक्ष्म: -हल्का हो जाता है



बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः।।2.51।।


शब्दार्थ :- 3बाह्य ( श्वास को बाहर निकाल कर बाहर ही रोकना )

 आभ्यन्तर ( श्वास को अन्दर लेकर अन्दर ही रोकना

विषय ( कार्य या कर्म का

आक्षेपी ( त्याग या विरोध करने वाला

चतुर्थ: ( यह चौथा प्राणायाम है । )


सूत्रार्थ :- श्वास को बाहर रोकने व अन्दर रोकने के विषय अर्थात कार्य का त्याग या विरोध करने वाला यह चौथा प्राणायाम है ।
अगर प्राणायाम सही ढंग से कर सके तो हमारे स्वास्थ्य की रक्षा हम स्वयं ही कर सकते हैं। मन अपने काबू में रहेगा। कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा |

5. प्रत्याहार

स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।।2.54।


शब्दार्थ :- स्वविषय ( अपने- अपने विषयों अर्थात कार्यों के साथ ) 

असम्प्रयोगे ( जुड़ाव या सम्बन्ध न होने से

चित्तस्य- स्वरूपानुकार ( चित्त के वास्तविक स्वरूप के

इव ( समान या अनुसार

इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों का भी वैसा ही हो जाना

प्रत्याहार: ( प्रत्याहार कहलाता है । )

मन एवं बुद्धि दोनों को शांत कर, उन्हें निर्मल, निश्चल एवं व्यवस्थित बनाये रखना ही प्रत्याहार कहलाता है | प्रत्याहार की स्थिति प्राप्त करें तो इंद्रियों को वश में रख सकते हैं। एकाग्रता साध कर मन तपस्या के मार्ग पर चल सकता है।


ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्।।2.55।।


शब्दार्थ :- तत: ( उसके बाद अर्थात प्रत्याहार की सिद्धि होने पर )

 परमा ( परम अर्थात सबसे ऊँचा )

 वश्यता ( वशीकरण अर्थात नियंत्रण )

 इन्द्रियाणाम् ( इन्द्रियों पर आता है ।)


6. धारणा


देशबन्धश्चित्तस्य धारणा।।3.1।।
शब्दार्थ :- चित्तस्य ( चित्त को ) देश ( किसी एक स्थान पर ) बन्ध: ( बाँधना अर्थात ठहराना या केन्द्रित करना ) धारणा ( धारणा होती है । )
किसी एक विषय पर एकाग्रता हासिल करना ही धारणा कहलाता है। 


हृदय, भूकुटि, जिह्वा, नासिका तथा नाभि वगैरह स्थूल एवं सूक्ष्म विषयों के साथ इष्ट देवी देवता या इष्ट चिह्न व मंत्र पर मन को एकाग्र करना भी धारणा है| 


आहार – विहार, बर्ताव, दैनिक कार्यों में सात्विक परिवर्तन कर सकें तो साधक धारण शक्ति की वृद्धि कर सकते हैं।

7. ध्यान

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।3.2।।


शब्दार्थ :- तत्र ( जहाँ पर अर्थात जिस स्थान पर धारणा का अभ्यास किया गया है उसी स्थान पर

प्रत्यय ( ज्ञान या चित्त की वृत्ति की

एकतानता ( एकतानता अर्थात एकरूपता बनी रहना ही

ध्यानम् ( ध्यान है । )


तदेवार्थमात्रनिर्भास स्वरूपशून्यमिव समाधिः।।3.3।।


शब्दार्थ :- तदेव ( तब वह अर्थात ध्यान ही ) अर्थमात्र ( केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का ) निर्भासं ( आभास करवाने वाला ) स्वरूपशून्यम् ( अपने निजी स्वरूप से रहित हुआ ) इव ( जैसा ) समाधिः ( समाधि होती है । )

प्रत्यय ( ज्ञान या चित्त की वृत्ति की ) 

एकतानता ( एकतानता अर्थात एकरूपता बनी रहना ही ) 

ध्यानम् ( ध्यान है । )


8. समाधि

त्रयमेकत्र संयमः।।3.4।।


शब्दार्थ :- त्रयम् ( तीनों अर्थात धारणा, ध्यान व समाधि का )

 एकत्र (  एक ही विषय में प्रयोग होना

संयम: ( संयम होता है । )


अवरोधों तथा रुकावटों को पार कर एक ही विषय पर चित्त को लगाना उसी में लीन होना समाधि कहलाता है| ध्यान की चरम स्थिति ही समाधि है। ध्यान और समाधि की स्थिति में अंतर है। ध्यान में, ध्यान करने वाला, ध्यान से संबंधित विषय तथा ध्यान का लक्ष्य तीनों अलग-अलग रहते हैं। पर समाधि में ये तीनों एक हो जाते हैं।


तज्जयात्प्रज्ञालोकः।।3.5।।
शब्दार्थ :- तत् ( उस अर्थात संयम पे ) ज्यात् ( जय अर्थात विजय प्राप्त करने पर ) प्रज्ञा ( बुद्धि का ) आलोक:, ( प्रकाश या विकास होता है । )


आत्म साक्षात्कार और आत्मा एवं परमात्मा का मिलन ही समाधि का एक मात्र लक्ष्य है। ऊपर बताये गये सातों अंग के अभ्यास की परिणती समाधि है


त्रयमन्तरङ्गं पूर्वेभ्यः।।3.7।।


शब्दार्थ :- पूर्वेभ्य: ( पूर्व अर्थात पहले कहे गए की अपेक्षा ) त्रयम् ( ये तीन अर्थात धारणा, ध्यान व समाधि ) अन्तरङ्गंम् ( अन्तरङ्ग अर्थात ज्यादा निकट हैं । )

  तदपि बहिरङ्गं निर्बीजस्य।।3.8।।

            शब्दार्थ :- तदपि ( वह भी अर्थात धारणा, ध्यान व समाधि भी ) 

निर्बीजस्य ( निर्बीज अथवा असम्प्रज्ञात समाधि के )

 बहिरङ्गं ( बाहरी साधन हैं । )


उपयुक्त योग वेल अष्टांग हमारे देशकी प्राचीन संस्कृति के द्वारा विश्व को प्रदत्त वरदान हैं। हर व्यक्ति का कत्र्तव्य है कि वह इन्हें समझें । निरंतर अभ्यास करें और अपना जीवन चरितार्थ करें।
वपुः कृशत्वं, वदने प्रसन्नता, नाद-स्फुटत्वं, नयने सुनिर्मले,
अरोगता, बिन्दुजयम्, अग्निदीपनं, नाडी विशुद्धिर्हठसिद्धि लक्षणम् ।


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 Last Date Modified

2024-01-19 16:15:38

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