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कुम्भक, ( प्राणायाम ) व षट्कर्म वर्णन

कुम्भक,

अथासने दृढे योगी वशी हितमिताशन: । गुरूपदिष्टमार्गेण प्राणायामान् समभ्यसेत ।। 1 ।।

भावार्थ :- आसन का अभ्यास मजबूत हो जाने पर योगी को अपनी इन्द्रियों को वश में करके हितकारी व थोड़ी मात्रा वाला भोजन करना चाहिए । इसके बाद वह गुरु के द्वारा बताई गई प्राणायाम की विधियों का अभ्यास करे ।

चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत् । योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत् ।। 2 ।।

भावार्थ :- वायु अर्थात प्राणवायु के चंचल होने से हमारा चित्त भी चंचल हो जाता है । और प्राणवायु के स्थिर हो जाने से हमारा चित्त भी स्थिर हो जाता है । प्राणवायु अर्थात प्राणायाम के द्वारा योगी जड़ पदार्थ की तरह स्थिरता प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार जब योगी प्राण को स्थिर कर देता है तो उससे उसका चित्त भी स्वयं ही स्थिर हो जाता है । अतः योगी साधक को प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में चित्त व मन दोनों को नियंत्रित करने का उपाय बताया गया है । हमारे जीवन का आधार हमारा प्राण ही है । जब तक यह हमारे शरीर में विद्यमान रहता है तब तक हम जीवित रहते हैं । और जैसे ही यह शरीर से बाहर निकल जाता है वैसे ही हम मृत घोषित हो जाते हैं । जिस तत्त्व के शरीर में रहने से ही हमारे जीवन की सत्ता है । और जिसके न रहने से हमारी सत्ता ही समाप्त हो जाती है । ऐसे तत्त्व को प्राण कहते हैं । जब साधक जीवन का आधार कहे जाने वाले प्राण पर नियंत्रण कर लेता है । तो उसके बाद कुछ भी ऐसा नहीं रहता जिसको मनुष्य अपने नियंत्रण में न ला सके । फिर चाहे वह चित्त हो, मन हो या इन्द्रियाँ । अतः प्राणायाम करने से जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नियंत्रण किया जा सकता है । अगले श्लोक में प्राण की अमूल्य उपयोगिता का भी वर्णन किया गया है ।

यावद् वायु: स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते । मरणं तस्य निष्कान्ति: ततो वायुं निरोधयेत् ।। 3 ।।

भावार्थ :- शरीर में जब तक यह प्राणवायु विद्यमान ( स्थित ) है । तब तक ही जीवन कहलाता है । लेकिन जैसे ही यह प्राणवायु शरीर से बाहर निकल जाता है । वैसे ही हम मरण ( मृत्यु ) अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । इसलिए हमें जीवन की रक्षा हेतु प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए ।

मलाकुलासु नाड़ीषु मारुतो नैव मध्यग: । कथं स्यादुन्मनीभाव: कार्यसिद्धि: कथं भवेत् ।।

भावार्थ :- जब तक हमारी नाड़ियो में मल अर्थात अवशिष्ट पदार्थ भरे होंगे तब तक प्राणवायु मध्यमार्ग अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं कर सकती । और जब तक प्राणवायु सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश नहीं करेगी तब तक उन्मनी भाव ( समाधि ) कैसे प्राप्त होगी ? और मोक्ष रूपी कार्य किस प्रकार से सिद्ध होंगे ? विशेष :- इस श्लोक में नाड़ी शोधन की आवश्यकता को दर्शाया गया है । नाड़ी की शुद्धि का सबसे सरल व प्रभावी उपाय नाड़ी शोधन प्राणायाम ही होता है । जिसका वर्णन अगले श्लोक में किया जाएगा ।

शुद्धिमेति यदा सर्वं नाड़ीचक्रं मलाकुलम् तदैव जायते योगी प्राणसंग्रहणे क्षम: ।। 5 ।।

भावार्थ :- जब मल से भरी हुई सभी नाड़ियाँ शुद्ध हो जाती हैं । तभी वह योगी प्राण साधना अर्थात प्राणायाम को करने में सक्षम होता है ।

प्राणायामं तत: कुर्यात् नित्यं सात्विकया धिया । यथा सुषुम्नानाड़ीस्था: मला: शुद्धिं प्रयान्ति च ।। 6 ।।

भावार्थ :- नाड़ी तन्त्र के शुद्ध हो जाने पर प्रतिदिन सात्विक बुद्धि से प्राणायाम करना चाहिए । जिससे सुषुम्ना नाड़ी में स्थित सभी मलों की शुद्धि हो सके ।

नाड़ी शोधन प्राणायाम विधि

बद्ध पद्मासनो योगी प्राणं चन्द्रेण पूरयेत् । धारयित्वा यथाशक्ति भूय: सूर्येण रेचयेत् ।। 7 ।। प्राणं सूर्येण चाकृष्य पूरयेदुदरं शनै: । विधिवत् कुम्भकं कृत्वा पुनश्चन्द्रेण रेचयेत् ।। 8 ।। येन त्यजेत्तेन पीत्वा धारयेदनिरोधत: । रेचयेच्च ततोऽन्येन शनैरेव न वेगत: ।। 9 ।।

भावार्थ :- योगी को पद्मासन में बैठकर पहले बायीं नासिका से प्राणवायु को अन्दर भरकर उसे अपनी सामर्थ्य शक्ति के अनुसार अन्दर ही रोकना चाहिए । इसके बाद उस प्राणवायु को दायीं नासिका से बाहर निकाल दें । फिर प्राणवायु को धीरे- धीरे अपनी दायीं नासिका से शरीर के अन्दर पेट तक भर लेना चाहिए । उसके बाद विधिवत रूप से उसे अन्दर रोकते हुए पुनः बायीं नासिका से प्राणवायु को बाहर निकाल दें । इस प्रकार जिस नासिका से श्वास को बाहर निकाला हो उसी से श्वास को अन्दर भरें और उसे तब तक अन्दर ही रोके रखें जब तक की बाहर छोड़ने की संवेदना ( बाहर छोड़ने की इच्छा ) न हो जाए । साथ ही दूसरी नासिका से श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़े, कभी भी जल्दबाजी न करें । विशेष :- बायीं नासिका से श्वास को अन्दर भरकर उसे अपने सामर्थ्य के अनुसार अन्दर ही रोककर रखें । फिर श्वास को दायीं नासिका से अन्दर भरकर पुनः यथाशक्ति अन्दर रोके रखें । फिर उसे बायीं नासिका से बाहर निकाल दें । इस प्रकार नाड़ी शोधन का एक चक्र पूरा होता है । श्वास को सदा धीरे- धीरे ही बाहर छोड़ना चाहिए ।

प्राणं चेदिडया पिबेन्नियमितं भूयोऽन्यया रेचयेत् । पीत्वा पिङ्गलया समीरणमथो बद्ध्वा त्यजेद्वामया ।। सूर्याचन्द्रमसोरनेन विधिनाभ्यासं सदा तन्वतां । शुद्धा नाडिगणा: भवन्ति यमिनां मासत्रयादूर्ध्वत: ।। 10 ।।

भावार्थ :- जब प्राणवायु को बायीं नासिका से अन्दर भरे तो उसे अन्दर रोकने के बाद दायीं नासिका से बाहर निकाल दें । और इसके बाद दायीं से प्राणवायु को अन्दर लेकर यथासंभव कुम्भक करके पुनः उसे बायीं नासिका से बाहर निकाल देना चाहिए । इस प्रकार जो साधक चन्द्र ( बायीं नासिका ) व सूर्य नाड़ी ( दायीं नासिका ) से नियमित रूप से इसका अभ्यास करते हैं उनका पूरा नाड़ी समूह तीन महीने या कुछ ज्यादा समय में शुद्ध हो जाता है ।

प्रातर्मध्यन्दिने सायमर्धरात्रे च कुम्भकान् । शनैरशीति पर्यन्तं चतुर्वारं समभ्यसेत् ।। 11 ।।

भावार्थ :- सुबह, दिन के मध्य अर्थात दोहपर में, सायंकाल में तथा आधी रात को इस प्रकार साधक को चार बार में अस्सी ( 80 ) कुम्भकों का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- इस प्रकार यहाँ पर चार बार कुम्भक का अभ्यास करते हुए कुल अस्सी कुम्भकों को करने की बात कही गई है । इससे पता चलता है कि एक बार में कुल बीस ( 20 ) कुम्भकों का अभ्यास करना चाहिए । तभी चार बार में अस्सी कुम्भक पूरे होंगे ।

साधक के तीन प्रकार

कनीयसि भवेत्स्वेद: कम्पो भवति मध्यमे । उत्तमे स्थानमाप्नोति ततो वायुं निबन्धयेत् ।। 12 ।।

भावार्थ :- कुम्भकों का अभ्यास करते हुए जब साधक के शरीर से पसीना निकलने लगे तो वह साधना की सबसे छोटी अथवा पहली अवस्था होती है । जिस अवस्था में शरीर के अंगों में कम्पन होने लगे वह साधना का दूसरा स्तर अथवा मध्य अवस्था कहलाती है । जैसे ही साधक में साधना की उच्च अवस्था आती है तो उसका शरीर भूमि को छोड़कर ऊपर उठने लगता है । इसे आकाश गमन की सिद्धि भी कहते हैं । अतः इन अवस्थाओं में उन्नति करने के लिए कुम्भक का अभ्यास करें । विशेष :- यहाँ पर साधक के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जिनको निम्न, मध्य व उच्च कोटि के साधकों के नाम से भी जाना जा सकता है ।

पसीने की मालिश का फल

जलेन श्रमजातेन गात्रमर्दनमाचरेत् । दृढता लघुता चैव तेन गात्रस्य जायते ।। 13 ।।

भावार्थ :- कुम्भक ( प्राणायाम ) रूपी परिश्रम करने से शरीर में पसीना आता है । उस पसीने की शरीर पर मालिश करनी चाहिए । उस पसीने को कभी भी पोछना नहीं चाहिए । ऐसा करने से शरीर मजबूत व हल्का हो जाता है ।

अभ्यासकाले प्रथमे शस्तं क्षीराज्यभोजनम् । ततोऽभ्यासे दृढीभूते न तादृङ्नियमग्रह: ।। 14 ।।।

भावार्थ :- योग साधना के प्रारम्भ में साधक के लिए घी व दूध से बने भोजन का सेवन करना उत्तम होता है । उसके बाद जब साधक का अभ्यास मजबूत हो जाने पर भोजन के लिए इस प्रकार के नियम का पालन करना आवश्यक नहीं होता है । विशेष :- योग साधना के शुरुआती दौर में साधक को अपने आहार के प्रति अधिक जागरूक होना चाहिए । इसलिए योग के प्रारम्भ में साधक को पुष्टि व बल प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थ अर्थात घी व दूध आदि का सेवन करना आवश्यक है । इससे शरीर में सामर्थ्यता बढ़ती है ।

यथा सिंहो गजो व्याघ्रो भवेद्वश्य: शनै: शनै: । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ।। 15 ।।

भावार्थ :- जिस प्रकार शेर, हाथी व बाघ आदि जंगली जानवरों को धीरे- धीरे वश में किया जाता है । ठीक उसी प्रकार प्राणवायु को भी धीरे- धीरे प्रयत्न पूर्वक वश अथवा नियंत्रण में करना चाहिए । इसके विपरीत यदि प्राणवायु को नियंत्रण करने में किसी प्रकार का उतावलापन या जल्दबाजी करने से जीवन की हानि अर्थात मृत्यु भी हो सकती है । अतः प्राणायाम को सदा पूरी सावधानी व यत्नपूर्वक करना चाहिए ।

प्राणायाम में सावधानी

प्राणायामेन युक्तेन सर्वरोगक्षयो भवेत् । अयुक्ताभ्यासयोगेन सर्वरोगसमुद्भव: ।। 16 ।।

भावार्थ :- उचित विधि से प्राणायाम का अभ्यास करने से सभी प्रकार के रोगों का नाश होता है । लेकिन विपरीत विधि अथवा गलत तरीके से प्राणायाम का अभ्यास करने से शरीर में सभी प्रकार के रोगों के उत्पन्न होने की भी सम्भावना रहती है । विशेष :- प्राणायाम का अभ्यास किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही करना चाहिए । अन्यथा लाभ की जगह हानि हो सकती है ।

वायु कुपित होने से रोगों की उत्पत्तिी

हिक्का श्वासश्च कासश्च शिर:कर्णाक्षिवेदना: । भवन्ति विविधा: रोगा: पवनस्य प्रकोपत: ।। 17 ।।

भावार्थ :- प्राणवायु के कुपित ( असन्तुलन ) होने से हिचकी, दमा, खाँसी, सिर, कान व आँख में पीड़ा तथा विभिन्न प्रकार के अन्य रोग भी होते हैं ।

युक्तं युक्तं त्यजेद्वायुं युक्तं युक्तं च पूरयेत् । युक्तं युक्तं च बध्नीयादेवं सिद्धिमवाप्नुयात् ।। 18 ।।

भावार्थ :- योगी साधक हमेशा प्राणवायु को सही विधि से ही बाहर निकाले, सही विधि से ही अन्दर ले व सही विधि से ही अन्दर रोकना चाहिए । अर्थात साधक को विधिवत रूप से प्राणवायु का रेचन, पूरक व कुम्भक करना चाहिए । इस प्रकार पूर्ण विधि से प्राणायाम करने से साधक को सिद्धि प्राप्त होती है ।

नाड़ी शुद्धि का फल

यदा तु नाड़ीशुद्धि: स्यात् तदा चिह्नानि बाह्यत: । कायस्य कृशता कान्तिस्तथा जायेत निश्चतम् ।। 19 ।। यथेष्टधारणं वायोरनलस्य प्रदीपनम् । नादाभिव्यक्तिरारोग्यं जायते नाडिशोधनात् ।। 20 ।।

भावार्थ :- जब हम उचित विधि से प्राणायाम का अभ्यास करते हैं तो उसके फलस्वरूप शरीर में कुछ बाह्य लक्षण दिखाई देते हैं । जिससे शरीर निश्चित रूप से पतला व कान्तियुक्त ( चमक वाला ) हो जाता है । इस प्रकार नाड़ी के शुद्ध होने से व प्राणवायु को अपनी इच्छानुसार रोक लेने से जठराग्नि प्रदीप्त अर्थात जाग्रत होती है । अनाहत नामक नाद प्रकट होता है और साधक पूर्ण रूप से आरोग्यता से परिपूर्ण ( स्वस्थ ) हो जाता है ।

षट्कर्म का अभ्यास कौन करे

मेद:श्लेष्माधिक: पूर्वं षट्कर्माणि समाचरेत् । अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावत: ।। 21 ।।

भावार्थ :- जिन व्यक्तियों के शरीर में चर्बी अर्थात मोटापा और कफ ज्यादा है उनको पहले आगे कही जाने वाली छ: शुद्धि क्रियाओं का अच्छे से अभ्यास करना चाहिए । इसके अलावा जिन व्यक्तियों के वात, पित्त व कफ नामक तीनों दोष सम अवस्था में हैं । उनको इन छ: शुद्धि क्रियाओं का अभ्यास नहीं करना चाहिए । या उनको इनके अभ्यास की कोई आवश्यकता नहीं है ।

धौतिर्बस्तिस्तथा नेति: त्राटकं नौलिकं तथा । कपालभातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ।। 22 ।।

भावार्थ :- धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि तथा कपालभाति इन छ: शुद्धि क्रियाओं को षट्कर्म कहा जाता है ।

क्रियाओं की गोपनीयता एवं महत्त्व

कर्मषट्कमिदं गोप्यं घटशोधनकारकम् । विचित्रगुणसंधायि पूज्यते योगिपुङ्गवै: ।। 23 ।।

भावार्थ :- यह घट रूपी शरीर को शुद्ध करने वाली व आश्चर्यजनक परिणाम प्रदान करने वाली छ: शुद्धि क्रियाओं को गुप्त रखना चाहिए । इसीलिए योगी पुरुषों द्वारा इन सभी शुद्धि क्रियाओं का बहुत आदर- सम्मान किया जाता हैं ।

धौति क्रिया

चतुरङ्गुलविस्तारं हस्तपञ्चदशायतम् । गुरु प्रदिष्ट मार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्ग्रसेत् । पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौतिकर्म तत् ।। 24 ।।

भावार्थ :- धौति के लिए सबसे पहले चार अँगुल चौड़ा ( लगभग तीन से चार इंच ) और पन्द्रह (15) हाथ लम्बा ( लगभग बाईस फीट ) सूती वस्त्र लें । उसे पानी में डालकर गीला करलें । फिर गुरु द्वारा बताई विधि के अनुसार उस कपड़े को धीरे- धीरे गले से निगलते हुए अपने पेट में ले जाएं । कुछ समय पश्चात धीरे- धीरे उसे वापिस निकाल लें । यह प्रक्रिया धौति कर्म कहलाती है । इस धौति क्रिया को वस्त्र धौति के नाम से जाना जाता है ।

धौति क्रिया के लाभ

कास – श्वास – प्लीहा – कुष्ठं कफरोगाश्च विंशति: । धौतिकर्मप्रभावेण प्रयान्त्येव न संशय: ।। 25 ।।।

भावार्थ :- धौति क्रिया के प्रभाव अर्थात अभ्यास से नि:संदेह खाँसी, दमा, तिल्ली व कुष्ठ आदि चर्म रोग व इसके अलावा बीस प्रकार के कफ रोगों का भी नाश होता है । विशेष :- हठयोग के अनुसार कफ के असन्तुलित होने से से बीस (20) प्रकार के रोग होते हैं ।

गजकरणी क्रिया

उदरगतपदार्थमुद्वमन्ति पवनमपानमुदीर्य कण्ठनाले । क्रमपरिचयवश्यनाडिचक्रा गजकरणीति निगद्यते हठज्ञै: ।। 26 ।।

भावार्थ :- योगी को अभ्यास द्वारा क्रमानुसार अपने नाड़ीतन्त्र पर नियंत्रण प्राप्त करके अपानवायु को ऊपर कण्ठ तक लाकर, उसकी सहायता से पेट में स्थित पदार्थों ( बिना पचे हुए अन्न व जल ) को वमन अर्थात बाहर निकालना गजकरणी क्रिया कहलाती है । विशेष :- यहाँ पर गजकरणी क्रिया का उल्लेख किया गया है । यह भी एक प्रकार की शुद्धि क्रिया है । लेकिन इसे मुख्य शुद्धि क्रियाओं में नहीं रखा गया है । कुछ भाष्यकारों ने इस श्लोक का वर्णन सभी षट्कर्मों के बाद किया है ।

बस्ति क्रिया

नाभिदध्नजले पायुन्यस्तनालोत्कटासन: । आधाराकुन्चनं कुर्यात् क्षालनं बस्तिकर्म तत् ।। 27 ।।

भावार्थ :- नाभि तक के गहरे पानी में उत्कटासन लगाकर गुदा में नाल अर्थात नली लगाकर अपने मूलाधार का संकोच करें ( अश्वनी मुद्रा का अभ्यास करें ) अर्थात गुदा से पानी को अन्दर की ओर खींचें और गुदा को अन्दर से धोये । यह बस्ति क्रिया कहलाती है । विशेष :- गुदा का आंकुचन ( फैलाना ) व संकुचन ( सिकोड़ना ) करना अश्वनी मुद्रा कहलाती है ।

बस्ति क्रिया के लाभ

गुल्म प्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवा: । बस्तिकर्मप्रभावेण क्षीयण्ते सकलामया: ।। 28 ।।

भावार्थ :- बस्ति क्रिया के प्रभाव अर्थात अभ्यास से वायुगोला, तिल्ली, जलोदर व वात, पित्त और कफ के असन्तुलन से उत्पन्न होने वाले सभी रोगों का नाश होता है । विशेष :- वायुगोला का अर्थ है पेट में वायु के प्रकोप से कई बार एक गोलानुमा आकृति का बनना । तिल्ली स्प्लीन को कहते हैं व जलोदर का अर्थ है जल से उत्पन्न होने वाले रोग ।

धात्त्विन्द्रियान्त:करणप्रसादं दद्याच कान्तिन्दहनप्रदीप्तिम् । अशेषदोषोपचयं निहन्यादभ्यस्यमानं जलबस्तिकर्म ।। 29 ।।

भावार्थ :- जल बस्ति क्रिया से ही शरीर की सभी रस, रक्त, मास, मेद, मज्जा हड्डी व वीर्य आदि सप्त धातु, इन्द्रियाँ, और अन्त:करण निर्मल हो जाते हैं । शरीर में तेजस्विता आती है । पाचन क्रिया मजबूत होती है और साथ ही जल बस्ति से सभी प्रकार के रोग भी समाप्त होते हैं ।

नेति क्रिया

सूत्रं वितस्ति सुस्निग्धं नासानाले प्रवेशयेत् । मुखान्निर्गमयेच्चैषा नेति: सिद्धैर्निगद्यते ।। 30 ।।

भावार्थ :- पूरी तरह चिकनाई से युक्त एक बारह अँगुल लम्बे सूती धागे को नाक के एक छिद्र से डालकर उसे मुँह द्वारा बाहर निकालने को योगियों ने नेति क्रिया कहा है । विशेष :- 1. सूती धागे पर घी या तेल में अच्छी तरह से लगा होना चाहिए । 2.जो नासिका खुली हुई है पहले उसी नासिका से इसका अभ्यास करें । फिर दूसरी तरफ से 3. इस क्रिया को कागासन में बैठकर करना चाहिए । वैसे खड़े होकर भी इसका अभ्यास किया जा सकता है ।

नेति क्रिया के लाभ

कपालशोधनी चैव दिव्यदृष्टिप्रदायिनी । जत्रूर्ध्वजातरोगौघं नेतिराशु निहन्ति च ।। 31 ।।

भावार्थ :- नेति क्रिया के अभ्यास से पूरे कपाल प्रदेश ( मस्तिष्क ) की शुद्धि होती है, दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है और इसके अतिरिक्त नेति हमारे दाढ़ों अर्थात जबड़े से ऊपर होने वाले सभी रोगों को नष्ट करती है । विशेष :- सामान्य रूप से नेति के दो अथवा तीन प्रकारों का वर्णन हमें सुनने को मिलता है । लेकिन हठप्रदीपिका व घेरण्ड संहिता दोनों ही ग्रन्थों में नेति को एक ही प्रकार की माना है । जिसे हम सामान्यत सूत्र नेति कहते हैं । वर्तमान समय में योग के आचार्यों ने नेति के कई प्रकारों का वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है । जिससे प्रायः विद्यार्थियों के सामने भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है । अतः यौगिक ग्रन्थों के अनुसार नेति एक ही प्रकार की है जिसे सूत्र नेति कहा है । सूत्र नेति के अलावा आधुनिक समय में नेति के विभिन्न प्रकार प्रचलन में हैं – जल नेति, रबड़ नेति, दुग्ध नेति व घृत नेति आदि । इन सभी में जल नेति का प्रयोग सूत्र नेति के पूर्व कर्म ( प्री- वर्कआउट ) के रूप में किया जाता है जो कि तर्कसंगत है । दुग्ध व घृत नेति का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाता है । लेकिन इन सभी में रबड़ नेति का प्रयोग कई प्रकार से हानिकारक हो सकता है । सबसे पहले तो रबड़ नेति रबड़ की बनी होती है और रबड़ के निर्माण में बहुत से हानिकारक कैमिकलों का प्रयोग किया जाता है । जो निश्चित रूप से शरीर के लिए हानिकारक होते हैं । दूसरा रबड़ में एक प्रकार की दुर्गन्ध आती है और हमारी नासिका बहुत ही संवेदनशील अंग है । जिससे नासिका में एलर्जी होने का भय बना रहता है । तीसरा रबड़ नेति रबड़ की बनी होती है जिसका टूटने का खतरा भी रहता है । अतः उपर्युक्त कारणों से यह मेरी निजी सलाह है कि योग के साधक को रबड़ नेति का प्रयोग नहीं करना चाहिए । बाकी यह सभी विद्वानों की चर्चा का विषय भी है ।

त्राटक क्रिया

निरीक्षेन्निश्चलदृशा सूक्ष्मलक्ष्यं समाहित: । अश्रुपातनपर्यन्तमाचार्यैस्त्राटकं स्मृतम् ।। 32 ।।

भावार्थ :- एकाग्र होकर अपनी आँखों से किसी भी सूक्ष्म लक्ष्य ( जो दिखाई देता हो ) को तब तक देखें जब तक आँखों से पानी ( आँसू ) न आ जाए । योग आचार्यों ने इस क्रिया को त्राटक कहा है । विशेष :- त्राटक क्रिया का अभ्यास हम किसी दीपक या मोमबत्ती के ऊपर कर सकते हैं अथवा किसी एक बिन्दु पर भी इसका अभ्यास किया जा सकता है । आजकल आपको बाजार से त्राटक के लिए स्टैण्ड भी आसानी से उपलब्ध हो सकता है । मोतियाबिंद के रोगियों को दीपक या मोमबत्ती पर त्राटक का अभ्यास नहीं करना चाहिए । जिन व्यक्तियों को नजर का चश्मा लगा हो उनको त्राटक का अभ्यास चश्मा उतार कर करना चाहिए ।

त्राटक क्रिया के लाभ

मोचनं नेत्ररोगाणां तन्द्रादीनां कपाटकम् । यत्नतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाटकपेटकम् ।। 33 ।।

भावार्थ :- त्राटक का अभ्यास करने से व्यक्ति के नेत्र सम्बन्धी सभी रोगों का नाश हो जाता है और यह साधक में तन्द्रा व आलस्य को आने से इस तरह से रोकता है जैसे दरवाजा ( किवाड़ ) हवा को अन्दर आने से रोकता है । इसीलिए त्राटक के अभ्यास को बहुमूल्य रत्नों की तरह छिपाकर करने योग्य बताया गया है ।

अमन्दावर्त्तवेगेन तुन्दं सव्यापसव्यत: । नतांसो भ्रामयेद् एषा नौलि: सिद्धै: प्रचक्ष्यते ।। 34 ।।

भावार्थ :- अपने कंधों को थोड़ा आगे की ओर झुकाकर पेट को भँवर की तरह पूरी तेज गति के साथ दायीं तरफ से बायीं तरफ घुमाने को योगी पुरुष नौलि क्रिया कहते हैं ।

नौलि के लाभ

मन्दाग्नि सन्दीपनपाचनादिसन्धायिकानन्दकरी सदैव । अशेषदोषामयशोषणी च हठक्रिया मौलिरियं च नौलि ।। 35 ।।

भावार्थ :- नौलि क्रिया हमारी मन्द ( खराब या कमजोर ) जठराग्नि को तेज करके पांचन शक्ति को मजबूत करती है । इसका अभ्यास हमेशा आनन्द प्रदान करवाने वाला होता है । साथ ही यह शरीर के सभी दोषों को समाप्त करती है । नौलि क्रिया हठयोग की सभी शुद्धि क्रियाओं में श्रेष्ठ है । ऐसा स्वामी स्वात्माराम का मानना है । विशेष :- नौलि के अभ्यास से पहले साधक को उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।

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